एक जीवित बुद्ध के रूप में, अगले दलाई लामा के पुनर्जन्म की उम्मीद की जाती है, लेकिन उत्तराधिकार का प्रश्न अनिश्चितता में डूबा हुआ है क्योंकि वर्तमान दलाई लामा ने इस संभावना के बारे में पहले ही चेतावनी दे दी है कि यह वंश उनके साथ ही समाप्त हो सकता है। लेकिन 1950 से तिब्बत पर शासन कर रहे पीआरसी का कहना है कि 14वें दलाई लामा का एक उत्तराधिकारी होगा और अगला अवतार चीन के अंदर ही जन्म लेगा और चीनी सरकार द्वारा अनुमोदित होगा।

गत दिनों एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, शिज़ांग स्वायत्त क्षेत्र की जन सरकार के अध्यक्ष गामा सेडैन ने तिब्बती पहचान और धार्मिक मामलों से जुड़े दो संवेदनशील विषयों पर स्पष्ट व्यक्तव्य दिए, जिसमें एक- अगले दलाई लामा की चयन प्रक्रिया में चीनी कानूनों, धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक परंपराओं का पालन किया जाने से सम्बन्धित था, दूसरा जीवित बुद्धों का पुनर्जन्म एक सुनियोजित प्रक्रिया होती है जिसमें केंद्र सरकार की मंज़ूरी, चीन के भीतर खोज और पहचान, और स्वर्ण कलश से पारंपरिक रूप से चिट्ठी निकालना आदि शामिल है। गामा उन रिपोर्टों का भी खंडन करते है जिनमें दावा किया गया था कि तिब्बती भाषा को क्षेत्रीय कॉलेज प्रवेश परीक्षा (गाओकाओ) से हटा दिया गया है। जैसा कि अधिकारी ने बताया कि शिज़ांग ने 2024 में एक राष्ट्रीय परीक्षा सुधार को अपनाया है, फिर भी तिब्बती भाषा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में एक प्रमुख शैक्षणिक विषय बनी हुई है। तिब्बती छात्र अभी भी तिब्बती भाषा में विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा दे सकते हैं, जिससे भाषाई और सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करते हुए उच्च शिक्षा में समानता और पहुँच सुनिश्चित होती है। ये दोनों बातें में एक बात तो सत्य है और वह है तिब्बत पर अपने एकाधिकार के साथ-साथ दलाई लामा के चयन के मामले पर अपनी मठाधीशी कायम करना। 

दलाई लामा के उत्तराधिकारी के मामले में वर्तमान योजना का अधिकांश भाग चीन द्वारा अपने दलाई लामा का नाम घोषित करने के संभावित जवाबी कदम पर केंद्रित है, जो ‘स्वर्ण कलश’ के माध्यम से ही होगा। स्वर्ण कलश की शुरुआत चीन के किंग राजवंश ने 1793 में लॉटरी के माध्यम से अगले दलाई लामा का निर्धारण करने के लिए एक तरीके के रूप में की थी। ‘फोर्जिंग द गोल्डन अर्न’ के लेखक मैक्स ओइड्टमैन ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस को दिए एक साक्षात्कार में कहा-1990 के दशक में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने तिब्बत में चीनी संप्रभुता के प्रतीक के रूप में और भविष्य के दलाई लामाओं के भौतिक व्यक्तित्व पर नियंत्रण बनाए रखने के एक उपकरण के रूप में स्वर्ण कलश को पुनर्जीवित किया। स्वर्ण कलश उस समय की चीनी नौकरशाही प्रथाओं का अनुकरण करता था। ओइड्टमैन अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि कैसे एक दशक के भीतर यह ‘महत्वपूर्ण पुनर्जन्मों की पहचान करने की प्रक्रिया का एक नियमित हिस्सा बन गया,, हालाँकि वर्तमान दलाई लामा ने इसे सिरे से अस्वीकार कर दिया है।
 

चीनी कानून और विनियम और अनिश्चितता की स्थिति

चीनी कानून और विनियम 2007 के अनुसार दलाई लामा सहित सभी तुलकुओं (जीवित बुद्ध) के अवतारों को राज्य की स्वीकृति प्राप्त करनी होगी, अन्यथा उन्हें ’अवैध या अमान्य’ माना जाएगा। आवेदनों को प्रांतीय धार्मिक मामलों के विभाग, प्रांतीय सरकार, धार्मिक मामलों के लिए राज्य प्रशासन, और अंततः राज्य परिषद आदि जैसे कई स्तरों से होकर गुजरना होगा। वहीं धार्मिक मामलों के नियम 2004 निर्दिष्ट करता है कि पुनर्जन्म प्रणाली को धार्मिक अनुष्ठानों/ऐतिहासिक परंपराओं और सरकारी अनुमोदन, दोनों का पालन करना होगा अन्यथा वह दंड का भागी होगा। एक जीवित बुद्ध के रूप में, अगले दलाई लामा के पुनर्जन्म की उम्मीद की जाती है, लेकिन उनके उत्तराधिकार का प्रश्न अनिश्चितता में डूबा हुआ है क्योंकि वर्तमान दलाई लामा ने इस संभावना के बारे में पहले ही चेतावनी दे दी है कि यह वंश उनके साथ ही समाप्त हो सकता है। किंतु 1950 से तिब्बत पर शासन कर रहे पीआरसी का कहना है कि 14वें दलाई लामा का एक उत्तराधिकारी होगा और अगला अवतार चीन के अंदर ही जन्म लेगा और चीनी सरकार द्वारा अनुमोदित होगा।

सारा के एक बयान (शिन्हुआ, पीपुल्स डेली में पुनर्मुद्रित) में सरकार के उद्देश्य को ’जीवित बुद्धों के पुनर्जन्म के प्रबंधन को संस्थागत बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम’ बताया गया है। सारा के एक अधिकारी ने एमएमआर (तिब्बती बौद्ध धर्म में जीवित बुद्धों के पुनर्जन्म के प्रबंधन के उपाय) के अनुच्छेद 2 के तहत पुनर्जन्म की राजनीतिक आवश्यकताओं का सारांश इस प्रकार दिया- ’पुनर्जन्मों के चयन में सभी जातीय समूहों की राष्ट्रीय एकता और एकजुटता को बनाए रखना आवश्यक है और चयन प्रक्रिया को देश के बाहर के किसी भी समूह या व्यक्ति द्वारा प्रभावित नहीं किया जा सकता।‘ यह टिप्पणी दलाई लामा और भारत तथा अन्य स्थानों पर निर्वासन में रह रहे अन्य उच्च पदस्थ तिब्बती बौद्ध शिक्षकों के संदर्भ में है। यह प्रावधान इस बात पर ज़ोर देता है कि कैसे एमएमआर पारंपरिक तिब्बती बौद्ध धर्म को पार्टी की नीतियों के अधीन कर देगा, और चीन में तिब्बती बौद्धों और विदेशों में रह रहे उनके शिक्षकों और सह-धर्मावलंबियों के बीच की दीवार को और मज़बूत करेगा।

इसके अलावा तिब्बती बौद्ध धर्म को नियंत्रित करने और जबरन नया स्वरूप देने के चीन के प्रयासों में चीन का बौद्ध संघ की भूमिका संदेह के घेरे में है।  चीन का बौद्ध संघ (बीएसी), जो एक कथित गैर-राजनीतिक संगठन होने के बावजूद, यह संगठन, तिब्बती बौद्ध धर्म को आत्मसात करने और रूपांतरित करने की चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की रणनीति में एक महत्वपूर्ण साधन बनता जा रहा है, विशेष रूप से पुनर्जन्म लेने वाले लामाओं की खोज और मान्यता के संबंध में। यह प्रक्रिया, जिसका उद्देश्य तिब्बती बौद्ध धर्म की अनूठी विशेषताओं को तोड़ना और उसे चीनी राज्य के एक उपकरण में बदलना है, सिनीकरण के रूप में जानी जाती है। आज, बीएसी ने एक ज़बरदस्त राजनीतिक लहजा और भाषा अपना ली है और सीसीपी के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाता है। प्यू रिसर्च सेंटर के अनुसार, 53 करोड़ बौद्ध अनुयायी चीन में रहते हैं, जो दुनिया भर में इस धर्म के अनुमानित 324 मिलियन अनुयायियों का लगभग 16: है।

 

तिब्बती भाषा को लेकर चीन की दोहरी प्रतिक्रिया

तिब्बत में मानवाधिकारों पर 28 मार्च की रिपोर्ट में, चीन ने कहा कि सरकारी दस्तावेज़ों, सार्वजनिक नोटिसों, मीडिया और स्कूलों में तिब्बती भाषा का व्यापक उपयोग होता है, और इस क्षेत्र के प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में मंदारिन और तिब्बती, दोनों भाषाओं के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं। जबकि तिब्बतियों का कहना है कि यह सच नहीं है, और चीन ने इस भाषा के इस्तेमाल को दबाने के लिए सक्रिय रूप से कदम उठाए हैं - जिसे वे तिब्बती सांस्कृतिक पहचान को पूरी तरह से खत्म करने की एक व्यापक योजना के हिस्से के रूप में देखते हैं। उनका मानना है कि 2023 में, चीन ने वार्षिक कॉलेज प्रवेश परीक्षा देने वाले छात्रों के लिए केवल मंदारिन भाषा की नीति शुरू की, जिससे तिब्बती बच्चों सहित कई जातीय अल्पसंख्यकों को - जिन्हें पहले अपनी मूल भाषा में परीक्षा देने की अनुमति थी - नुकसान उठाना पड़ा।

टीएआर सरकार के अध्यक्ष कर्मा त्सेतन ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जो दावा किया कि लोक प्रशासन में तिब्बती भाषा के अध्ययन और प्रयोग का अधिकार सुनिश्चित है और प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में मानक चीनी और तिब्बती, दोनों भाषाओं के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं, वह ज़मीनी हकीकत से इतर है। जुलाई 2024 में, चीनी अधिकारियों ने तिब्बत के ऐतिहासिक अमदो क्षेत्र के गोलोग काउंटी में स्थित गंगजोंग शेरिग नोरलिंग स्कूल को बंद करने की घोषणा की, जो तिब्बती संस्कृति, दर्शन और धर्म पर अपनी शिक्षा के लिए जाना जाता रहा। इसी महीने, न्गाबा काउंटी में कीर्ति मठ और ज़ोगे काउंटी में ल्हामो कीर्ति मठ के मठवासी स्कूलों को बंद कर दिया गया और कुल 1,600 युवा भिक्षुओं को सरकारी आवासीय स्कूलों में दाखिला लेने के लिए मजबूर किया गया, जिनके बारे में विश्लेषकों का कहना है कि इनका उद्देश्य युवा तिब्बतियों को बौद्ध धर्म की बजाय चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति अधिक वफादार बनाना है। यही नहीं, तिब्बती क्षेत्रों में, 6 वर्ष की आयु तक के बच्चों को बोर्डिंग स्कूलों में दाखिला लेना अनिवार्य है, जहां अब पार्टी के प्रति निष्ठा पैदा करने के लिए सैन्य दिग्गजों को ‘सैनिक प्रशिक्षक’ के रूप में तैनात किया जा रहा है।

ह्यूमन राइट्स वॉच के दस्तावेज़ बताते हैं कि हालाँकि चीन की नीति को आधिकारिक तौर पर ष्द्विभाषी शिक्षाष् कहा जाता है, लेकिन व्यवहार में तिब्बती क्षेत्रों के अधिकांश प्राथमिक और लगभग सभी माध्यमिक विद्यालयों ने शिक्षा के माध्यम के रूप में चीनी (मंदारिन) का उपयोग करना शुरू कर दिया है - जिससे तिब्बती भाषा की कक्षाएँ मुख्यतः केवल भाषाई कक्षाओं तक ही सीमित रह गई हैं। तिब्बती भाषा पर जनवरी 2016 में प्रकाशित अपने लेख में, ग्लोबल टाइम्स ने तिब्बती भाषा के प्रयोग में आई गंभीर गिरावट को स्कूलों में तिब्बती भाषा के प्रयोग में आई कमी से स्पष्ट रूप से जोड़ा। लेकिन चीनी अधिकारी आमतौर पर तिब्बती स्कूलों में चीनी माध्यम से शिक्षा शुरू करने को यह तर्क देकर उचित ठहराते हैं कि चीनी भाषा का बेहतर ज्ञान तिब्बतियों को आगे चलकर रोज़गार पाने में मदद करेगा, यह एक ऐसा दावा है जिसे तिब्बत में व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है। हालाँकि, तिब्बती किंडरगार्टन में चीनी भाषा की शिक्षा लागू करने का औचित्य बिल्कुल अलग है, कम से कम चीनी विद्वान याओ जीजुन की 2014 की एक रिपोर्ट के अनुसार, जिन्होंने कहा था कि प्री-स्कूल स्तर पर द्विभाषी शिक्षा का उद्देश्य तिब्बती किंडरगार्टन के बच्चों में ‘चीनी भाषा को बेहतर ढंग से एकीकृत करना है’ ताकि ‘तिब्बती क्षेत्रों में अस्थिरता के तत्वों को समाप्त किया जा सके’ ( ‘अस्थिरता’ चीन में राजनीतिक अशांति के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला एक शब्द है)। याओ के अनुसार, ‘तिब्बत की स्थिरता’ किंडरगार्टन स्तर पर ‘द्विभाषी शिक्षा’ के पूर्ण विकास पर निर्भर करती है।

 

तिब्बती गुरू के चयन के मामले में भारत की स्थिति नाजुक

कार्नेइसमें कोई दो राय नहीं कि  तिब्बत की बौद्ध विरासत भारत के साथ उसके ऐतिहासिक संबंधों का प्रमाण है। भारत से तिब्बत तक बौद्ध धर्म का प्रसार और उसके बाद तिब्बती समाज में आए परिवर्तन से सभी वाकिफ हैं, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के लिए भारत के हिमालयी क्षेत्र में, पूर्व में अरुणाचल प्रदेश से लेकर उत्तर-पश्चिम में सिक्किम, कालीमंतन, दार्जिलिंग, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और लद्दाख तक, तिब्बती बौद्ध धर्म का प्रचलन कम ही स्पष्ट है। भारत और चीन के बीच बढ़ते तनाव के बीच, भारत द्वारा तिब्बती बौद्ध समुदायों का समर्थन करना एक समझदारी भरा और अत्यंत आवश्यक कदम है। जैसा कि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने कहा, भारत सरकार आस्था और धर्म की मान्यताओं और प्रथाओं से संबंधित मामलों पर कोई रुख नहीं अपनाती या बोलती नहीं है। भारत हमेशा से सभी के लिए धार्मिक स्वतंत्रता का समर्थन किया है और आगे भी करती रहेगी।

लेकिन भारत को चीन के साथ तनावपूर्ण सबंधों को देख कर भविष्य की रणनीति पर काम करना होगा।गी इंडिया के गैर-निवासी वरिष्ठ फेलो विजय गोखले अपने एक शोधपत्र में कहते है कि यदि वर्तमान दलाई लामा पुनर्जन्म लेना चुनते हैं, संभवतः चीन के क्षेत्र के बाहर, और चीन द्वारा किसी अन्य अवतार का चयन किया जाता है, तो 15वें दलाई लामा के एक से अधिक अवतार एक साथ रह सकते हैं। भारत में इस स्थिति पर गहरी नज़र रखी जाएगी, जहाँ दलाई लामा 1959 से निवास कर रहे हैं। उनकी उपस्थिति चीन के साथ भारत के संबंधों में एक निरंतर नाज़ुक बिंदु रही है। उनके निधन के बाद, निर्वासित तिब्बती समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भारतीय धरती पर बना रहेगा। यदि पुनर्जन्म भारत में पाया जाता है या भारत में स्थानांतरित किया जाता है, तो यह चीन की इस घोषणा के मद्देनज़र संबंधों को जटिल बना सकता है कि पुनर्जन्म को संप्रभु चीनी क्षेत्र के भीतर उसकी पूर्व स्वीकृति से ही पाया जाना चाहिए। भारत में, दलाई लामा के पुनर्जन्म के मुद्दे को आमतौर पर द्विपक्षीय दृष्टिकोण से देखा जाता है या तो चीन के मुकाबले भारत को बढ़त देने के रूप में या भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में उस पर बोझ डालने के रूप में। यह माना जाता है कि पुनर्जन्म के संवेदनशील मुद्दे पर भारत का रुख 14वें दलाई लामा के बाद के परिदृश्य में चीन की नीति निर्माण में केंद्रीय भूमिका निभा सकता है। यह दृष्टिकोण चीन को एक निष्क्रिय या प्रतिक्रियात्मक भूमिका प्रदान करता है।

Author

Mrs. Rekha Pankaj is a senior Hindi Journalist with over 38 years of experience. Over the course of her career, she has been the Editor-in-Chief of Newstimes and been an Editor at newspapers like Vishwa Varta, Business Link, Shree Times, Lokmat and Infinite News. Early in her career, she worked at Swatantra Bharat of the Pioneer Group and The Times of India's Sandhya Samachar. During 1992-1996, she covered seven sessions of the Lok Sabha as a Principle Correspondent. She maintains a blog, Kaalkhand, on which she publishes her independent takes on domestic and foreign politics from an Indian lens.

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